गंगा मुझे भी तू खुद सा बना दे,
चली एक रस्ते चली जा रही है,
तेरी कुछ लहरें हवा की छूअन से,
छोड़ अपनी डगर को, चली तट से मिलने,
मगर उस जगह पर है क्षण भर ही रूकती,
पकड़ अपना रस्ता, चली मंजिल को मिलने
गंगा मुझे भी तू खुद सा बना दे,
खुद में समेटे ख़ुशी भी और गम भी,
अपना बोझा तू ढोती बिना इक सहारे,
तूफ़ान है अन्दर, माथे पर न शिकन है,
अपनी कमजोरियों को तू स्वीकार करके,
लिए अपने संग हर राही को चली है
गंगा मुझे भी तू खुद सा बना दे,
जंग लगी पुरानी नष्ट कश्तियों को,
आश्रय है देती, बिना कुछ भी मांगे,
देख उनके बेढब बंजर स्वरुप को,
न उनको तू कोसे, न अपशब्द सुनाये,
थामे है सहारा तू देती अशक्त को
गंगा मुझे भी तू खुद सा बना दे,
निकल एक शहर से तू बढती चली है,
न मोह में तू पड़ती, न बंधन में बंधती,
बहे पुल के नीचे बहे जा रही है,
न रूकती किसी से, न रोके किसी को,
तू सागर से मिलने बढ़ी जा रही है
गंगा मुझे भी तू खुद सा बना दे...
Nice effort...
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